मुजफ्फरपुर में ‘शहीद खुदीराम बोस केंद्रीय कारा’ के द्वार पर शहीद की काल कोठरी और कारागार परिसर में लगी उनकी प्रतिमा को देखने के लिए किसी को भी घंटों प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है। जेल परिसर में बेशुमार झाड़ियां और कूड़े के ढेर हैं। जिस फांसीघर में उन्हें लटकाया गया था, उसे अब बंद कर दिया गया है।
जेल अधिकारी प्रायः उनकी कोठरी को देखने की अनुमति नहीं देते। मुजफ्फरपुर से 30 किलोमीटर दूर वैनी (पूसा रोड), जहां खुदीराम पकड़े गए थे, वहां आसपास के कुछ लोगों ने चंदा इकट्ठा करके उनकी एक प्रतिमा लगवा दी है, लेकिन उसकी देखरेख की कोई व्यवस्था नहीं है। इस रेलवे स्टेशन का नाम अब ‘खुदीराम बोस पूसा’ है।
मुजफ्फरपुर में वह जगह देखकर भी हम निराश हुए, जहां से 30 अप्रैल, 1908 को जिला जज के बंगले के बाहर खुदीराम और उनके साथी प्रफुल्ल चाकी ने जज डगलस किंग्सफोर्ड पर बम फेंका था। यहां सड़क किनारे लगी शहीद प्रतिमाएं उनके चित्रों से मेल नहीं खातीं। इस उपेक्षित-से स्मारक को देखकर हम आहत हैं।
सब तरफ उदासी और खामोशी का साम्राज्य। चाकी की प्रतिमा के नीचे उनका परिचय भी अंकित नहीं है। इस पर लगी पट्टिका शायद खंडित होकर टूट-बिखर गई हो। एक समय किंग्सफोर्ड बंगाल में अदालत का हाकिम था, जहां उसने अनेक देशभक्तों को कड़ी सजा दी थीं। क्रांतिकारियों ने तय किया कि किंग्स से इसका बदला लिया जाए, जिसकी जिम्मेदारी खुदीराम और चाकी जैसे दो किशोर विप्लवियों को सौंपी गई।
इस बीच किंग्स का तबादला मुजफ्फरपुर हो गया, पर खुदीराम ने हिम्मत नहीं हारी। वह मुजफ्फरपुर में मोतीझील की धर्मशाला में ठहरकर किंग्स के आने-जाने का पता लगाने लगे। यूरोपियन क्लब (अब मुजफ्फरपुर क्लब) का रास्ता उन्होंने देख लिया। दोनों युवाओं ने गाड़ी के रंग की शिनाख्त कर उस पर बम फेंक दिया, जिसमें किंग्स न होकर एक महिला श्रीमती कनेडी और उनकी बेटी मारी गईं। शराब के नशे में धुत किंग्सफोर्ड उस दिन क्लब में ही पड़ा था।
पुलिस के दो सिपाहियों ने दूर तक दोनों को पकड़ने का प्रयास किया, लेकिन वे विफल रहे। दोनों क्रांतिकारी 25 किलोमीटर दूर एक जगह कुछ चना-चबेना लेने के लिए ठहरे कि किंग्स के बच जाने का उन्हें पता लगा। एकाएक उनके मुंह से निकल पड़ा-‘अरे, डगलस बच गया।’ लोगों को उन पर संदेह हुआ। वहां मौजूद सिपाही पकड़ने दौड़े। खुदीराम उनके हाथ आ गए, लेकिन चाकी गोलियां चलाते हुए भाग निकले। वह समस्तीपुर पहुंचे, जहां एक सज्जन ने टिकट लेकर उन्हें ट्रेन में बैठा दिया।
बाद में मोकामा स्टेशन पर पुलिस से घिरने पर उन्होंने मुकाबला किया और आखिरी गोली खुद को मारकर शहीद हो गए। उनका सिर काटकर मुजफ्फरपुर जेल ले जाया गया, जहां खुदीराम ने देखते ही उन्हें प्रणाम किया। बस, शिनाख्त पूरी हो गई। इसके बाद किंग्सफोर्ड को मारने का मुकदमा खुदीराम पर केवल पांच दिन चला था। खुदीराम ने बम फेंकने की बात खुद स्वीकार ली। उन्हें मृत्युदंड की सजा मिली।
11 अगस्त, 1908 को प्रातः छह बजे खुदीराम को फांसी पर चढ़ा दिया गया। मरने से पहले उन्होंने गाया-हांसी हांसी चोड़बो फांसी, देखबे भारतबासी। एक बार बिदाय दे मां, घूरे आसी। कहा जाता है कि वह जनता के बीच इतने लोकप्रिय थे कि उनकी चिता की भस्म लेने दाहस्थल पर लोगों में होड़ लग गई। माताओं ने बच्चों के गले में उनकी राख के ताबीज बांधे। बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने लगे थे, जिनके किनारे पर ‘खुदीराम’ लिखा होता था। स्कूल-कॉलेज में पढ़ने वाले लड़के इन धोतियों को पहनकर सीना तानकर चलते थे।
फांसी के समय खुदीराम मात्र 18 वर्ष के थे। उनका जन्म तीन दिसंबर, 1889 को मिदनापुर के हबीबपुर मुहल्ले में हुआ था। पिता त्रैलोक्यनाथ बसु नेड़ाजल इस्टेट के तहसीलदार थे और मां थीं लक्ष्मीप्रिया देवी। खुदीराम के नामकरण के पीछे एक कहानी है। उन दिनों बंगाल में नवजात बच्चों की मृत्यु दर अधिक थी। ऐसे में जब उनका जन्म हुआ, तो उनकी बड़ी बहन ने तीन मुट्ठी खुदी (टूटे चावल) देकर उन्हें खरीद लिया, ताकि वह जीवित रह सकें। उसी समय से वह खुदीराम कहे जाने लगे।
मुजफ्फरपुर एक शहर नहीं, बल्कि उस क्रांतिकारी की चेतना का स्मृति-स्थल भी है। चंद्रप्रकाश ‘जगप्रिय’ ने अपनी लोक रचना में कहा है-खुदीराम के कथा सुनो/भारत माय के व्यथा सुनो। खुदीराम बच्चे से वीर/दुश्मन के छाती में तीर।। खुदीराम पर बांग्ला में कई पुस्तकें लिखी गईं, जिनमें शैलेश दे, हेमचंद्र कानूनगो, भूपेन्द्र किशोर, रक्षित राय, ईशानचंद्र महापात्र, दीपक राय, विप्लव चक्रवर्ती तथा नगेंद्र कुमार गुहाराय का लिखा विशेष महत्व रखता है। इन पुस्तकों को हिंदी में छापने के प्रयास नहीं हुए। मजिस्ट्रेट के समक्ष दिए खुदीराम के सब बयान बांग्ला में थे, जो अब मूल रूप में उपलब्ध नहीं हैं। सरकारी रिकॉर्ड में उनका अंग्रेजी अनुवाद ही सुरक्षित है।
इनपुट : अमर उजाला
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