गरीब, वंचित और कमजोर वर्ग में जन्म लेने वाले का सपना भी कमजोर ही होता है। आला अधिकारी, पदाधिकारी, मंत्री व मुख्यमंत्री को वह देख सकते हैं, उसे मिलने वाले सुख सुविधाओं की कामना वह कर तो सकते हैं लेकिन उसका आनंद, सपना है।
जननायक कर्पूरी ठाकुर का जन्म गरीब और समाज के वंचित वर्ग नाई जाति में 24 जनवरी 1924 को गोकुल ठाकुर व श्रीमती रामदुलारी देवी के घर हुआ था। पिता गोकुल ठाकुर सीमांत किसान होने के साथ नाई का पारंपरिक काम करते थे, यही उनका मुख्य पेशा था। सौम्य, सभ्य एवं मृदु भाषी कर्पूरी ठाकुर ने कभी सपने में भी नहीं देखा होगा कि वह बिहार जैसे महान प्रदेश के एक बार उप मुख्यमंत्री और दो बार मुख्यमंत्री बनेंगे। दलित आंदोलन और शिक्षा में विशेष रुचि के कारण वह काफी लोकप्रिय हो गये थे. जिसके कारण वह जननायक कहलाए। हम उन्हें जननायक कर्पूरी ठाकुर के नाम से जानते हैं।
एक किस्सा उसी दौर का है कि उनके मुख्यमंत्री रहते, उनके गांव के कुछ दबंग सामंतों ने उनके पिता को अपमानित करने का काम किया. ख़बर फैली तो जिलाधिकारी गांव में कार्रवाई करने पहुंच गए, लेकिन कर्पूरी ठाकुर ने जिलाधिकारी को कार्रवाई करने से रोक दिया। उनका कहना था कि दबे पिछड़ों को अपमान तो गांव – गांव में हो रहा है। उन्होंने यह कह कर एक बड़ी सामाजिक कुरीतियाओं की ओर इशारा किया। स्वयं वह जब मैट्रिक में थे तो ऐसी घटनाओं से दो चार हुए थे। मैट्रिक उन्होंने प्रथम श्रेणी से पास किया था प्रफुल्लित पिता न गांव के जमिंदार के पास कर्पूरी ठाकुर को ले गए और खुशी खुशी अपने पुत्र का परिचय कराते हुए कहा कि मेरा बेटा प्रथम श्रेणी से मैट्रिक पास किया है। यह सुन कर उस जमिंदार ने अपने पैरों को ऊपर रखा और कर्पूरी ठाकुर से कहा कि उनका पैर दाबे।
चमत्कार तो तभी हुआ जब सरस और सरल हृदय वाले कर्पूरी ठाकुर का प्रवेश राजनीति में हुआ। वह कमजोर वर्ग, समाज और घर से होते हुए भी निड्डरता और निर्भिकता का परिचय दिया और स्वतंत्रता की जंग में कूद पड़े, परिणाम भारत छोड़ो आंदोलन के समय उन्हें जेल की हवा खानी पड़ी। देश प्रेम और क्रांतिकारी भावना का एक उदाहरण उन्होंने कृष्णा टाॅकिज पटना में छात्रों की एक सभा को संबोधित करते हुए दिया, कहा ” हमारे देश की आबादी इतनी है कि केवल थूक फेंकने से अंग्रेजी राज बह जाएगा “, उनमें देश प्रेम कूट कूट कर भरा था, उनकी वाणी क्रांतिकारी थी, उनका नारा था-
” अधिकार चाहो तो लड़ना सीखो
पग पग पर अड़ना सीखो
जीना है तो मरना सीखो “
वह गरीबों के अधिकार के लिए लड़ते रहते थे. उनका राजनीतिक और सामाजिक जीवन संघर्षशील था। राम मनोहर लोहिया कर्पूरी ठाकुर के राजनीतिक गुरु, रामसेवक व मधुलिमये उनके करीबी दोस्त थे। कांग्रेस में पिछड़ी जातियों के गुट ‘ त्रिवेणी संघ ‘ के वह सक्रिय सदस्य थे। वर्ष 1967 में लोहिया जी के गैर कांग्रेसवाद के आह्वान के परिणामस्वरूप कांग्रेस पराजित हुई।
महामाया प्रसाद के नेतृत्व में बनी सरकार में कर्पूरी ठाकुर उपमुख्यमंत्री एवं शिक्षा मंत्री बनाए गए। 1977 में जब वह मुख्यमंत्री बने और पिछड़े समाज का वाजिब प्रतिनिधित्व किया। पिछड़ों को 27 प्रतिशत आरक्षण जिसमें 3 प्रतिशत सभी वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षण शामिल था, अंग्रेजी की अनिवार्यता को उन्होंने समाप्त किया जिससे उच्च शिक्षा में सामान्य लोगों की रुचि जगी। उर्दू को उसका हक दिया, राज्य की द्वितीय भाषा का स्थान देकर उर्दू भाषियों को सम्मान दिया।
सामाजिक बदलावों की वास्तविक शुरुआत 1967 में हुई। मैट्रिक में अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त करने के चलते उनकी आलोचना भी हुई लेकिन हक़ीक़त है कि उन्होंने शिक्षा को आम लोगों तक पहुंचाया। इस दौर में अंग्रेजी में फेल मैट्रिक पास लोगों का मज़ाक ‘कर्पूरी डिविजन से पास हुए हैं’ कह कर उड़ाया जाता रहा। 1978 में बिहार का मुख्यमंत्री रहते हुए जब उन्होंने हाशिए पर धकेल दिये गए वर्ग के लिए सरकारी नौकरियों में 26 प्रतिशत आरक्षण लागू किया तो उन्हें क्या-क्या न कहा गया। लोग उनकी मां-बहन-बेटी-बहू का नाम लेकर भद्दी – भद्दी गालियां देते। अभिजात्य वर्ग के लोग उन पर तंज कसते हुए कहते – कर कर्पूरी कर पूरा, छोड़ गद्दी, धर उस्तरा। सिंचाई विभाग में 17000 की वेकेंसी निकालना महंगा पड़ा, एक सप्ताह में उनकी सरकार गिर गई।
राम मनोहर लोहिया की सोशलिस्ट और कर्पूरी ठाकुर की प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का समन्वय हुआ तो कर्पूरी जी ने नारा दिया ” संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पाए 100 में 60 “, ” कमाने वाला खाएगा, लूटने वाला जाएगा “। इतना ही नहीं कर्पूरी ठाकुर ने परिवारवाद और वंशवाद को लोकतंत्र के लिए दीमक बताया था। उनको भाषा का कुशल कारीगर कहा जाता है। उनकी आवाज खनकदार और चुनौतीपूर्ण थी। वह सत्य बोलते, संयम कभी न खोते और वाणी पर कठोर नियंत्रण रखते हुए आडंबर रहित उत्साहवर्धक और चिंतापरक संवेदना से भरपूर भाषण देते।
आम जन की आवाज, गरीब दुखियों के मसीहा जननायक कर्पूरी ठाकुर 1952 से जीवनपर्यंत विधायक रहे। राज्य के सर्वोच्च पद मुख्यमंत्री के कुर्सी की भी वे शोभा बने और 17 फरवरी 1988 में 64 वर्ष की आयू में निर्वान प्राप्त किया। परन्तु, प्रश्न उठता है कि सत्ता में रह एक मुख्यमंत्री क्या कमा सकता है और कर्पूरी ठाकुर ने क्या कमाया, एक सच्चाई है कि प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह उनके घर गए तो दरवाज़ा इतना छोटा था कि चौधरी जी को सिर में चोट लग गई।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश वाली खांटी शैली में चौधरी चरण सिंह ने कहा, ‘कर्पूरी, इसको ज़रा ऊंचा करवाओ।’ जवाब आया, ‘जब तक बिहार के ग़रीबों का घर नहीं बन जाता, मेरा घर बन जाने से क्या होगा?’ एक बार कर्पूरी ठाकुर की मृत्यु के बाद हेमवती नंदन बहुगुणा उनके गांव गये थे और उनकी पुश्तैनी झोंपड़ी देख कर रो पड़े थे। उन्होंने अपनी जीवन में यही कमाया था कि मृत्यु के बाद अपने परिवार के सदस्यों के लिए विरासत में मकान तक देने को न था, न ही पैतृक गांव में और न ही पटना में।
पैतृक संपत्ति में उन्होंने एक इंच जमीन तक नहीं जोड़ी थी। सवारी के लिए उनके पास गाड़ी नहीं थी वह रिक्शे की सवारी करते थे। यह भी एक उदाहरण है कि मुख्यमंत्री रहते कर्पूरी ठाकुर अपनी बेटी के लिए लड़का देखने टेक्सी से गये थे, दरअशल सरकारी सम्पत्ति का दुरुपयोग वह नहीं करना चाहते थे, बेटी की शादी वह देवघर से करना चाहते थे पत्नी की जिद पर पैतृक गांव पितौझियां से किया, शादी में मंत्रीमंडल के किसी भी सदस्य को उन्होंने न्योता भी नहीं दिया था, जबकि आज के मंत्री, मुख्यमंत्री जहाज से मंत्रीमंडल के सदस्यों के यहां विभिन्न आयोजनों में शिरकत करने जाते हैं।
राजनीति में आज जिस प्रकार भाई भतीजावाद चल रहा है, कर्पूरी ठाकुर जब मुख्यमंत्री थे तो उनके सगे बहनोई उनके पास नौकरी के लिए गए तो उन्होंने बहनोई को 50 रुपया थमा कर कहा कि जाइये, इससे उस्तरा आदि खरीद लीजिएगा और अपना पुश्तैनी धंधा आरंभ कीजिए। वह परिवारवाद, वंशवाद को लोकतंत्र के लिए घातक मानते थे। अपनी छवि को वह बेदाग रखना चाहते थे, वह चाहते थे कि उनकी ईमानदारी और शराफत दूध की तरह साफ हो तभी तो उन्होंने अपने पुत्र रामनाथ ठाकुर को पत्र लिखा, पत्र में यह उपदेश दिया कि तुम इससे प्रभावित नहीं होना, कोई लोभ लालच दे तो उस लोभ में मत आना मेरी बदनामी होगी।
कर्पूरी ठाकुर की पहचान आसान थी, उनका व्यक्तित्व अनुकरणीय था। फटा कुर्ता और टूटी चप्पल और बिखरे बाल, बिल्कुल दीवानों सी उनकी शक्ल थी। उनकी सादगी और गरीबी का मिशाल है कि जब वह 1952 में पहली बार विधायक बने थे उन्हीं दिनों उनका आस्ट्रिया जाने वाले एक प्रतिनिधिमंडल में चयन हुआ था। पहनने के लिए उनके पास कोट नहीं था तो एक दोस्त से कोट मांगा, वह भी फटा हुआ था।
खैर, कर्पूरी ठाकुर वही कोट पहनकर विदेश यात्रा पर गए। वहां यूगोस्लाविया के मुखिया मार्शल टीटो ने देखा कि कर्पूरी जी का कोट फटा हुआ है, तो उन्हें नया कोट गिफ़्ट किया। यह हालत उनकी जीवन पर्यंत रही, आम जीवन में मुख्यमंत्री के पद पर रहते भी उनकी यही हालत थी। तभी तो जेपी के जन्म दिवस पर चन्द्रशेखर ने अपना कुर्ता फैला कर कर्पूरी ठाकुर के कुर्ता फंड में दान मांगा था। इस प्रकार कुल 100 रुपए इकट्ठे हुए,
कर्पूरी ठाकुर को यह राशि सौंपते चंद्रशेखर ने कहा था. इस राशि से अपना कुर्ता – धोती ही खरीदीए कोई दूसरा काम मत कीजिए। कर्पूरी ठाकुर ने बगैर किसी भाव के कहा, ‘ इसे मैं मुख्यमंत्री राहत कोष में जमा करा दूंगा। उनकी ईमानदारी का एक उदाहरण यह भी है कि 1974 में कर्पूरी ठाकुर के छोटे बेटे का मेडिकल की पढ़ाई के लिए चयन हुआ। पर वे बीमार पड़ गए।
दिल्ली के राममनोहर लोहिया हास्पिटल में उन्हें भर्ती कराया गया। हार्ट की सर्जरी होनी थी। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को जैसे ही पता चला, एक राज्यसभा सांसद को वहां भेजा और उन्हें एम्स में भर्ती कराया। खुद भी दो बार देखने गईं और सरकारी खर्च पर इलाज के लिए उन्होंने अमेरिका भेजने की पेशकश की। कर्पूरी ठाकुर को पता चला तो उन्होंने कहा कि वे मर जाएंगे पर बेटे का इलाज सरकारी खर्च पर नहीं कराएंगे।
बाद में जेपी ने कुछ व्यवस्था कर न्यूजीलैंड भेजकर उनके बेटे का इलाज कराया। यह कहानी है साधारण जीवन जीने वाले एक मुख्यमंत्री की, जननायक कर्पूरी ठाकुर की जबकि हर कोई सरकारी सुविधा भोगने का कोई अवसर नहीं गंवाते हैं, पैरवी लगाते हैं कि मुफ्त में सरकारी सुविधाएं उन्हें हासिल हो जाए। सच तो यह भी है कि लाखों, करोड़ों रुपए खर्च कर लोग विधायक और सांसद इसी उद्देश्य की पुर्ती के लिए बनते हैं।
लेख : मो0 रफी