सियासत में कोई किसी का दोस्त नहीं होता…समीकरण के बदलते ही दोस्त, दुश्मन बन जाते हैं और दुश्मन दोस्त. बिहार के सियासी गलियारों में आजकल ये कहावत सही सिद्ध होती दिख रही है. कल तक जिन नेताओं के बीच दोस्ती की कसमें चर्चा में रहती थीं आज फूटी आंखों एक-दूसरे को नहीं सुहा रहे… जो मुकेश सहनी तेजस्वी से नाराज होकर एनडीए में आए थे उनके सारे विधायकों को बीजेपी उड़ा ले गई.
बीजेपी से चोट खाए सहनी अब लालू यादव की तारीफ करते नजर आ रहे हैं. मुकेश सहनी के पैरों तले से सियासी जमीन खिसका देने वाली कहावत को सच करते हुए राजनीतिक जमीन उड़ा लेने की बिहार में इससे पहले भी कई मिसाल देखने को मिली है. पहले उपेंद्र कुशवाहा, फिर चिराग पासवान को इस सियासी जायके का स्वाद चख चुके हैं और अब मुकेश सहनी इसी सियासी दांवपेच के शिकार होते दिख रहे हैं.
मझधार में डूबी मुकेश सहनी की ‘नाव’
नीतीश सरकार में मंत्री और विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) के प्रमुख मुकेश सहनी को बीजेपी ने बड़ा सियासी झटका दिया. 2020 में बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान आरजेडी के साथ गठबंधन तोड़कर बीजेपी से हाथ मिलकर चुनाव लड़ने वाले मुकेश सहनी की वीआईपी पार्टी से चार विधायक जीते थे. इनमें से एक विधायक का निधन हो चुका है और बाकि तीनों विधायक राजू सिंह, मिश्रीलाल यादव और स्वर्णा सिंह ने सहनी का साथ छोड़ दिया हैं.
सहनी के तीनों ही विधायकों ने बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष डा. संजय जायसवाल, उपमुख्यमंत्री तारकिशोर प्रसाद के साथ बिहार विधानसभा अध्यक्ष विजय सिन्हा से मुलाकात कर बीजेपी का दामन थाम लिया हैं. यही नहीं स्पीकर ने उन्हें बीजेपी में विलय की मान्यता भी दे दी है. इस तरह से मुकेश सहनी ने जहां से अपना सियासी सफर शुरू किया था, वहीं पर फिर से पहुंच गए हैं.
सहनी का सियासी भविष्य पर छाया संकट
मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में सेट डिजाइन का काम छोड़कर मुकेश सहनी ने सियासत आए. यह बात 2014 लोकसभा चुनाव की बात है, जब मुकेश सहनी ‘स्टार कैंपेनर के तौर पर बिहार में बीजेपी के लिए प्रचार किया. यहीं से उन्हें सियासी चस्का लगा और उन्होंने निषाद समुदाय को एससी आरक्षण दिए जाने की मांग को लेकर 2018 में विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) का गठन किया. इसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में आरजेडी के साथ मिलकर तीन सीटों पर चुनाव लड़े, लेकिन एक भी सीट पर जीत नहीं सके.
2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में सीट बंटवारे के चलते मुकेश सहनी ने आरजेडी से अलग होकर एनडीए का हिस्सा बनकर मैदान में उतरे थे. हालांकि, एक बड़ा तथ्य यह था कि उनकी पार्टी के लिए सीटों का इंतजाम बीजेपी ने अपने कोटे से किया था. वीआईपी ने 11 सीटों पर चुनाव लड़कर चार जीती थी. जीतने वाले करीब-करीब सभी विधायक बीजेपी के करीबी रहे. बीजेपी से रार ठानने के बाद उनके विधायक साथ छोड़कर चले गए और अब बीजेपी के हो गए हैं. सहनी खाली हाथ रह गए हैं और उनके एमएलसी का कार्यकाल भी जुलाई 2022 तक है. ऐसे अब मुकेश सहनी के लिए सियासी संकट खड़ा हो गया कि कैसे अपने मंत्री पद और एमएलसी की कुर्सी बचाएं.
बीजेपी से दूर होकर मजबूर हो गए कुशवाहा
2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का चेहरे घोषित किया तो नीतीश कुमार ने एनडीए से नाता तोड़ लिया था. ऐसे समय में बीजेपी के लिए बिहार में उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी आरएलएसपी सहारा बनी थी. बिहार की तीन लोकसभा सीटों पर आरएलएसपी चुनाव लड़ी और तीनों ही जीतने में सफल रही. मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में उपेंद्र कुशवाहा केंद्रीय मंत्री बने और 2015 के चुनाव में तीन विधायक उनके जीते. वहीं, नीतीश कुमार और लालू यादव की पार्टी के साथ मिलाकर बिहार की सत्ता पर काबिज हो गए.
हालांकि, 2017 में सियासी समीकरण ऐसे बदले कि नीतीश कुमार ने आरजेडी से गठबंधन तोड़कर बीजेपी के साथ फिर से हाथ मिला लिया. नीतीश की एनडीए में वापसी होते ही उपेंद्र कुशवाहा के रिश्ते बीजेपी से बिगड़ने लगे और 2019 चुनाव से पहले सियासी राह जुदा हो गई. कुशवाहा ने केंद्रीय मंत्री पद से इस्तीफा देकर बीजेपी से गठबंधन तोड़ लिया और आरजेडी के साथ हाथ मिला लिया. कुशवाहा के बाकी दोनों सांसद बीजेपी में शामिल हो गए तो तीनों विधायक जेडीयू का दामन थाम लिए.
लोकसभा चुनाव 2019 में आरजेडी की अगुवाई वाले महागठबंधन में कुशवाहा की पार्टी ने पांच संसदीय सीटों पर चुनाव लड़ा लड़ी, लेकिन एक भी सीट पर जीत नहीं सकी. इसके बाद 2020 के चुनाव में कुशवाहा का रिश्ता आरजेडी से बिगड़ गया और ओवैसी के मिलकर चुनाव लड़े, लेकिन खाता नहीं खोल सके. विधानसभा चुनाव के बाद खाली हाथ कुशवाहा ने जेडीयू में अपनी पार्टी का विलय करते हुए घर वापसी कर गए और फिर से नीतीश कुमार ने उन्हें एमएलसी बनाकर साथ रख लिया है.
चिराग पासवान के पास न पार्टी बची न नेता
पीएम मोदी के ‘हनुमान’ बताने वाले चिराग पासवान ने एनडीए से नाता तोड़ने के बाद कहीं के नहीं बचे हैं. न तो चिराग के पास पार्टी बची और न ही नेता. बिहार में 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी और एलजेपी साथ आए थे, तब एलजेपी की कमान चिराग पासवान के पिता रामविलास पासवान के हाथों में थी. एलजेपी के 6 सांसद जीते थे, जिसके बाद रामविलास पासवान केंद्र की मोदी सरकार में मंत्री बने. इसके बाद 2019 का लोकसभा चुनाव भी एलजेपी ने बीजेपी के साथ मिलकर लड़ी और 6 लोकसभा सदस्य जीते. इसके अलावा राम विलास पासवान राज्यसभा सदस्य बनकर केंद्र में मंत्री, लेकिन 2020 चुनाव के बीच उनका निधन हो गया.
एलजेपी की कमान चिराग पासवान के संभालते ही पार्टी की उलटी गिनती शुरू हो गई. सीट शेयरिंग को लेकर सहमति नहीं बनी तो चिराग पासवान ने बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए से अलग होकर चुनाव लड़ी. चिराग ने जेडीयू के उम्मीदवारों के खिलाफ एलजेपी के प्रत्याशी उतारा और बीजेपी को वाकओवर दिया. इस तरह चिराग पासवान को अकेले चुनाव लड़ना मंहगा पड़ा और महज एक सीट ही जीत सके, जो बाद में जेडीयू का दामन थाम लिया तो एमएलसी बीजेपी में शामिल हो गई.
रामविलास पासवान के निधन के एक साल ही गुजरे थे कि एलजेपी के दो गुटों में बट गई. चिराग पासवान को छोड़कर पार्टी के बाकी सभी पांचों सांसद उनके चाचा पशुपति पारस साथ मिलकर तख्तापलट कर दिया. पशुपति पारस मोदी सरकार में एलजेपी कोटे से केंद्रीय मंत्री बन गए. एलजेपी संसदीय दल के नेताओं के तौर पर पशुपित पारस को लोकसभा अध्यक्ष ओम बिगड़ा ने मान्यता भी दे दी है. एलजेपी दो धड़ों में बंट गई. चिराग पासवान अकेले बचे हैं जबकि बाकी नेता पशुपित पारस के साथ है. पार्टी के चुनाव निशान को लेकर मामला अदालत में है. इस तरह से एलजेपी के दूसरे नेताओं ने दूसरे दलों का दामन थाम लिए हैं. इस तरह से सियासत में दोस्ती और दुश्मनी का खेल जारी है और एक-एक छोटे दल निपटते जा रहे हैं.
इनपुट : आज तक