नई दिल्ली, एक अनुमान के मुताबिक बिहार में सूदखोरी का धंधा करोड़ों का है, जिसका कोई लेखा-जोखा सरकार के पास उपलब्ध नहीं है. कोई शहर या गांव इससे अछूता नहीं रह गया है. ऊंचे ब्याज दर पर पैसा देने वाले ये लोग इतने दबंग हैं कि इनके आतंक से कई लोग अपनी जान भी गंवा चुके हैं. यह अवैध धंधा बिहार में काफी तेजी से फैल रहा है.

इसी साल पांच जून को समस्तीपुर जिले के विद्यापतिनगर प्रखंड अंतर्गत मऊ धनेशपुर दक्षिण गांव में एक दिल दहलाने वाली घटना में दो बच्चों समेत एक ही परिवार के पांच लोग काल के गाल में समा गए. ये सभी अपने खपरैल घर में फांसी के फंदे पर झूल गए थे. ऐसे तो यह आत्महत्या की घटना थी लेकिन, इसकी जड़ में सूदखोरों का आतंक ही था. यही वजह रही कि मनोज झा की विवाहित बिटिया काजल झा के बयान पर पुलिस ने हत्या का केस दर्ज किया. उसने साफ तौर पर आरोप लगाया कि यह खुदकुशी नहीं, हत्या है जिसे सूदखोरों ने इसे अंजाम दिया है.

दरअसल, काजल की शादी के लिए मनोज झा के पिता रतिकांत झा ने गांव के कुछ लोगों से ब्याज पर रुपये लिए थे. इसके अलावा आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने की लालसा में मनोज झा ने दो टेंपो, एक मैजिक तथा पिकअप वैन फाइनेंसर के जरिए लोन पर लिया था. शादी के लिए ब्याज (सूद) पर लिए गए पैसे नहीं लौटाने के कारण सूदखोर एक टेंपो को छोड़ सभी गाड़ी उठा ले गए. इस वजह से रतिकांत झा ने पांच माह पहले आत्महत्या कर ली थी. मनोज टेंपो चलाकर गुजारा कर रहे थे, लेकिन ब्याज सहित पैसे लौटाने का दबाव उन पर बना हुआ था. छोटी बिटिया निभा की शादी के लिए भी मनोज झा ने कर्ज लिया था. निभा का कहना था कि कर्ज देने वाले लोग उन्हें लगातार प्रताड़ित कर रहे थे, यहां तक कि हत्या की धमकी दे रहे थे. यह घटना तो एक बानगी है. इसके पहले भी प्रदेश में ऐसी कई घटनाएं हुई हैं.

दरअसल, अंग्रेजी हुकूमत में या उसके थोड़े दिनों बाद तक ऐसा होता था कि अगर कोई व्यक्ति कर्ज नहीं चुका पाता था तो साहूकार गिरवी रखी गई उसकी जमीन हड़प लेता था, उसके गहने ले लेता था. उनकी ब्याज दरें काफी अधिक होती थीं. यह महाजनी प्रथा कही जाती थी. फिर बिहार साहूकारी अधिनियम अस्तित्व में आया. पटना व्यवहार न्यायालय के अधिवक्ता राजेश कुमार कहते हैं, ”मनी लांड्रिंग कंट्रोल एक्ट, 1986 के तहत मनमाना ब्याज वसूली और शर्तों का उल्लंघन करना दंडनीय अपराध की श्रेणी में आता है. इसमें तीन से सात साल की सजा हो सकती है. इस अधिनियम में प्रावधान है कि कोई व्यक्ति बिना लाइसेंस सूद पर किसी को पैसे नहीं दे सकता है. सूद भी बैंक की दर से लिया जाएगा”.

फिर देखते ही देखते राज्य में गुंडा बैंक अस्तित्व में आ गया. यह कुछ ऐसे दबंगों, अपराधियों व तथाकथित राजनेताओं का समूह था जो संगठित तौर पर काफी ऊंचे ब्याज दर पर गरीब जरूरतमंदों को मामूली लिखा-पढ़ी पर कर्ज देता था और उसके दूसरे दिन से वसूली करता था. समस्तीपुर प्रकरण में भी तीन लाख के कर्ज के बदले मनोज झा से सूदखोर 17 लाख रुपये मांग रहे थे. समाजशास्त्री एके सिंह कहते हैं, ”आजादी के बाद जब बैंकों का विस्तार हुआ तो ऐसा समझा गया कि अब साहूकारों-सूदखोरों का शोषण खत्म हो जाएगा. लेकिन, धरातल पर आजादी के 75 साल बाद भी ऐसा नहीं हो पाया है.” आज हर जिले में ऐसे लोगों का संगठित गिरोह काम कर रहा है.

इसी साल फरवरी माह में पटना हाईकोर्ट ने भी गुंडा बैंक पर नकेल कसने के लिए एडीजी की अध्यक्षता में एसआईटी (विशेष जांच दल) बनाने का निर्देश दिया था. कटिहार के एक दंपति व उसके पुत्र की मौत के प्रकरण में दो आरोपियों की जमानत याचिका की सुनवाई के दौरान अदालत की एकल पीठ ने साफ तौर पर कहा था कि गरीब व जरूरतमंद लोगों को दबंग सूद पर पैसा देते हैं. पैसा समय पर नहीं चुका पाने की स्थिति में उनकी जमीन लिखवा लेते हैं. जमीन की कीमत ज्यादा होने तथा दी गई रकम कम होने की स्थिति में शेष राशि बाद में देने का आश्वासन देते हैं और कुछ दिनों के बाद पूरे परिवार को मृत पाया जाता है. इस मामले में अदालत ने दोनों की जमानत अर्जी खारिज कर दी तथा निर्देश दिया कि एसआईटी अपनी जांच रिपोर्ट कोर्ट को सीलबंद लिफाफे में पेश करे.

नाम नहीं प्रकाशित करने की शर्त पर सूद पर पैसे देने वाले बेगूसराय निवासी कहते हैं, ”मैं तो किसी को पैसे देने खुद नहीं जाता. जरूरत पड़ने पर वे पैसे लेने आते हैं. सब कुछ लिखकर देते हैं. हमारा पैसा लगा होता है तो रिस्क के बदले कुछ तो हमें मिलेगा और फिर उनका भी काम हो जाता है. तो इसमें बुराई क्या है. जो है सब सामने है और स्पष्ट है.” वहीं बैठे एक और शख्स का कहना था कि अगर किसी को पैसे की जरूरत होती है चाहे वह व्यापारी हो या किसान या फिर कोई और, उसे वक्त पर पैसा मिल जाता है. जब उनसे यह कहा गया कि व्यक्ति विशेष द्वारा मनमाने सूद पर पैसा देना अवैध है तो उन्होंने कहा, ”कौन सी सरकारी संस्था उन्हें इतनी जल्दी पैसा दे देगी. बेटी की शादी हो, बीमारी की स्थिति हो, श्राद्ध करना हो या फिर खेती, उनका काम तो नहीं बिगड़ता. बदले में उन्हें थोड़ा ज्यादा वापस करना पड़ता है, जो जायज भी है.”

कृषि प्रधान राज्य होने के कारण बिहार की बड़ी आबादी खेती पर निर्भर है. एक किसान की फसल यदि खराब हो जाती है तो उसका साल भर का अर्थशास्त्र बिगड़ जाता है. इस बीच जरूरतों को पूरा करने के लिए कर्ज ही एकमात्र सहारा रह जाता है. बैंकों से तत्काल और आसानी से ऋण नहीं मिल पाने के कारण सूदखोरों की शरण में जाना इनकी मजबूरी हो जाती है.

अवकाश प्राप्त पुलिस पदाधिकारी श्रीनारायण सिंह कहते हैं, ”सूदखोरों की मोडस ऑपरेंडी बहुत साफ है. ये कर्ज लेने वाले की जरूरत के अनुसार दो से पांच रुपये प्रति सैकड़ा के हिसाब से पैसे देते हैं. हरेक माह की नियत तारीख को कर्जदार को ब्याज की रकम उन्हें देनी पड़ती है. इसके लिए पैसे लेने वाले को एक तरह का लिखित करार भी करना पड़ता है. निश्चित अवधि में उन्हें मूलधन लौटा देना होता है.”

इसमें किसी तरह की गड़बड़ी कभी-कभी उनकी जान की ग्राहक भी बन जाती है. विधायक रामरतन सिंह कहते हैं, ”सरकार की कल्याणकारी योजनाएं गांव के दलालों के चंगुल में फंसी हुई हैं. इसलिए गरीब लोगों को इन योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता है. आम आदमी परेशान है, अधिकारी व बिचौलिए इसका नाजायज फायदा उठा रहे हैं.” हालांकि, ऐसा नहीं है कि केवल किसान ही उनके चंगुल में फंसते हैं. व्यापारी, कम पगार वाले सरकारी या निजी कर्मचारी भी इनकी मदद लेते हैं. व्यापारी तो सामान की मनमानी कीमत लेकर मुनाफे में आ जाता है, लेकिन अन्य लोगों के लिए सूद की रकम देना ही भारी पड़ जाता है. तब फिर शुरू होता है उनकी प्रताड़ना का दौर.

यह सच है कि राजधानी पटना समेत राज्य के हरेक गांव, कस्बा या शहर में यह धंधा बदस्तूर जारी है. सरकार की लाभकारी योजनाएं अगर त्वरित गति से लोगों के लिए सुलभ न हुईं तो आदमखोर बन चुके ये मनी लैंडर्स एक दिन सरकार, सिस्टम, अर्थव्यवस्था व समाज के लिए बड़ी चुनौती बन जाएंगे.

source: oneindia.com

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