मुजफ्फरपुर: जब भूख, बेबसी और सिस्टम ने एक परिवार की सांसें छीन लीं

मुजफ्फरपुर: जब भूख, बेबसी और सिस्टम ने एक परिवार की सांसें छीन लीं

सकरा थाना क्षेत्र के मिश्रौलिया गांव में जो हुआ, वह सिर्फ एक घटना नहीं… यह हमारे समाज और व्यवस्था पर लगा एक ऐसा सवाल है, जिसका जवाब किसी के पास नहीं है।
एक कच्चे घर के भीतर, जहां कभी बच्चों की किलकारियां गूंजती थीं, वहां अब सन्नाटा है—मौत का सन्नाटा।

अमरनाथ राम, उम्र करीब 40 साल। एक ऐसा पिता, जिसने अपनी जिंदगी की आखिरी रस्सी सिर्फ अपने गले में नहीं डाली, बल्कि अपने मासूम बच्चों को भी उस अंधेरे में खींच ले गया, जहां से कोई लौटकर नहीं आता। तीन बेटियों समेत उसके बच्चों की भी मौत हो गई। मां तो होली के आसपास ही बीमारी से चल बसी थी। उसी मां के जाने के साथ घर से रोटी कमाने वाला आखिरी सहारा भी चला गया था।

वह मां, जो खुद बीमार रहती थी, फिर भी दूसरों के घरों में काम कर बच्चों के लिए दो वक्त की रोटी जुटाती थी। उसके मरते ही घर की चूल्हा बुझ गया।

अमरनाथ कभी-कभार मजदूरी कर लेता था, लेकिन रोज़गार स्थायी नहीं था। कई-कई दिन ऐसे बीतते थे जब घर में खाना नहीं बनता था। सरकारी राशन ही एकमात्र सहारा था, वह भी हर महीने समय पर नहीं मिलता।

घर में न बिजली थी, न पंखा, न कोई बुनियादी सुविधा। बच्चों की पढ़ाई बहुत पहले छूट चुकी थी। किताब, कॉपी, कपड़े—सब सपने बन गए थे।


जरूरतें धीरे-धीरे बोझ बनती गईं और वह पिता भीतर ही भीतर टूटता चला गया। गांव वालों के मुताबिक वह ज्यादा बोलता नहीं था। अपनी तकलीफ किसी से कह नहीं पाता था। शायद उसे लगा होगा कि उसकी आवाज़ सुनने वाला कोई नहीं है।

घटना से एक रात पहले परिवार ने साथ बैठकर खाना खाया।
शायद यह आखिरी बार था जब उस घर में एक साथ चूल्हा जला, आखिरी बार जब बच्चों ने पिता के साथ रोटी तोड़ी। किसी को अंदाजा नहीं था कि वही रात उनकी जिंदगी की आखिरी रात बन जाएगी।

सुबह जब यह दिल दहला देने वाली सच्चाई सामने आई, तो पूरा गांव सन्न रह गया। एक बच्चा किसी तरह जान बचाकर बाहर निकला और मदद की गुहार लगाई, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
एक पिता और उसके बच्चे मौत के फंदे पर झूल रहे थे—खामोशी से, बेआवाज़।

यह सिर्फ आत्महत्या नहीं है।
यह भूख की मौत है।
यह बीमारी की मौत है।
यह बेरोज़गारी की मौत है।
और सबसे बड़ा सच—यह व्यवस्था की नाकामी की मौत है।

Tirhut Now यह सवाल पूछता है—
अगर समय पर मदद मिल जाती,
अगर राशन, इलाज, रोज़गार और सहारा मिल जाता,
तो क्या आज मिश्रौलिया का यह घर यूं सूना होता?

इस घर की दीवारें अब भी खड़ी हैं,
लेकिन उनके भीतर से जिंदगी हमेशा के लिए चली गई है।